स्यमन्तक मणि की कथा

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Episode
19 of 63
Duration
9min
Language
Hindi
Format
Category
Thrillers

स्यमन्तक मणि की कथा - जब भगवान् श्रीकृष्ण पर लगा चोरी का आरोप

सूत्रधार की इस कहानी में हम सुनेंगे स्यमन्तक मणि के बारे में। स्यमन्तक मणि एक ऐसी मणि थी जिसमें स्वयं भगवान् सूर्यदेव का तेज समाहित था। वो मणि जिस भी राज्य में रहती उस राज्य में कभी भी धन-धान्य की कमी नहीं होती। अब ऐसी मणि को कौन नहीं पाना चाहेगा। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के मन में उस मणि को पाने की इच्छा जागी। बचपन में गोपियों से माखन चुराकर खाने के कारण भगवान् श्रीकृष्ण का एक नाम माखनचोर भी है। लेकिन इस बार जो आरोप भगवान् कृष्ण पर लगा था वो हंसी-खेल में करी गयी चोरी का नहीं था। इस बार आरोप लगा था दुनिया की सबसे मूल्यवान वस्तु की चोरी का। आरोप था कि श्रीकृष्ण ने चोरी की थी स्यमन्तक मणि की। क्या था इस आरोप का सच? क्या सच में चुराई थी श्रीकृष्ण ने वो मूल्यवान मणि? अगर नहीं, तो फिर उन पर ऐसा आरोप क्यों लगा? इन्ही प्रश्नों के उत्तर मिलेंगे हमें आज की इस कथा में। भगवान् श्रीकृष्ण की पत्नियों जांबवंती और सत्यभामा के तार भी इसी कथा से जुड़े हुए हैं । तो फिर बिना समय व्यर्थ किये सुनते हैं इस रोचक कथा को और जानते हैं इससे जुड़े हुए सारे प्रश्नों के उत्तर।

अंधकवंशी यादवों के राजा सत्राजित भगवान् सूर्यदेव के परम भक्त थे। सत्राजित ने वर्षों तक सूर्यदेव की आराधना की। एक दिन सुबह-सुबह सत्राजित रोज की ही तरह सूर्य वंदना कर रहे थे, कि भगवान् सूर्यदेव स्वयं उनके सामने प्रकट हो गए। सत्राजित ने जब भगवान् आदित्य को साक्षात् अपने सामने खड़ा हुआ देखा तो हाथ जोड़कर वंदना करते हुए कहा,"प्रभु! आप जिस तेज से इस सारे संसार को प्रकाशित करते हैं, मुझे वह तेज देने की कृपा करें।" सत्राजित के ऐसा कहने पर भगवान् भास्कर ने उन्हें दिव्य स्यमन्तक मणि दी। यह मणि सूर्य के तेज से प्रकाशित थी और उसको अपने गले में पहनकर जब सत्राजित ने अपने नगर में प्रवेश किया तो सभी को लगा स्वयं सूर्यदेव पधारे हैं।

सत्राजित ने वह मणि अपने प्रिय छोटे भाई प्रसेनजित को दे दी। वह मणि अंधकवंशी यादवों के घर में समृद्धि लाती रही। वह मणि जहाँ भी रहती उसके आस-पास के क्षेत्रों में समय पर वर्षा होती और लोग सभी रोगों से मुक्त रहते। जब भगवान् श्रीकृष्ण को उस मणि के बारे में पता चला तो उन्होंने प्रसेन से मणि पाने की इच्छा व्यक्त की, परन्तु प्रसेन ने उनको मणि देने से मना कर दिया।

एक दिन प्रसेन उस मणि को अपने गले में पहनकर शिकार खेलने के लिए गए। वहाँ प्रसेन एक शेर के हाथों मारे गए और वह शेर उनकी मणि अपने मुँह में दबाकर भाग गया। महाबली ऋक्षराज जांबवान ने जब शेर को अपने मुँह में मणि दबाये भागते हुए देखा तो उन्होंने शेर का वध कर, मणि लेकर अपनी गुफा में चले गए। अगर आप लोग सोच रहे हैं कि क्या ये जांबवान वही हैं? तो आप सही सोच रहे हैं। ये वही ऋक्षराज जांबवान हैं जिन्होंने सीतामाता की खोज में भगवान् राम की मदद की थी।

इधर जब कई दिनों तक प्रसेन का कोई पता नहीं चला तो अंधकवंश के लोग संदेह करने लगे कि हो-न-हो इसमें श्रीकृष्ण का ही हाथ है। उन्होंने पहले भी प्रसेन से मणि माँगी थी और प्रसेन ने उन्हें मणि नहीं दी; इसलिए उन्होंने मणि चुराने के उद्देश्य से प्रसेन को या तो बंदी बना लिया है, या उसका वध कर दिया है। सत्राजित ने द्वारका आकर भरी सभा में सबके सामने श्रीकृष्ण पर आरोप लगाते हुए कहा,"माखन चुराते-चुराते रत्नों की चोरी कबसे करने लगे, यशोदानन्दन? मेरे प्रिय भाई को तुमने जहाँ भी छुपाकर रखा है, उसे मणि समेत वापस कर दो।" भगवान् श्रीकृष्ण ने मणि नहीं चुराई थी, फिर भी उन पर मणि चुराने का आरोप लग रहा था और लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे। इस कलंक से मुक्त होने के लिए श्रीकृष्ण ने मणि को ढूंढने का निश्चय किया और जंगल में चले गए। जंगल में प्रसेन के घोड़े के पैरों के निशानों का पीछा करते हुए श्रीकृष्ण को प्रसेन की और उसके घोड़े की लाशें मिली, लेकिन वहाँ मणि का कोई निशान नहीं था। थोड़ी दूर पर ऋक्षराज के द्वारा मारा गया सिंह भी पड़ा मिला। ऋक्ष के पैरों के निशान का पीछा करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण जांबवान की गुफा तक पहुँच गए।

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