4.3
วรรณกรรมคลาสสิค
सूखा बरगद मंजूर एहतेशाम ‘सूखा बरगद’ मंजूर एहतेशाम का ऐसा उपन्यास है जिसने उपन्यास-जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए एक हलचल पैदा की। क्योंकि यह उपन्यास, महज़ उपन्यास ही नहीं, भारतीय मुस्लिम समाज की मुकम्मिल तस्वीर भी है। वर्तमान मुस्लिम समाज के अन्तर्विरोधों की गम्भीर पड़ताल की वजह से ही यह उपन्यास काल-सीमा को लाँघता प्रतीत हुआ और उपन्यासकार मंजूर एहतेशाम का नाम राही मासूम राजा और शानी सरीखे चर्चित लेखकों की श्रेणी में शूमार किया जाने लगा। ‘सूखा बरगद’ में मुस्लिम समाज में व्याप्त अशिक्षा, अन्धविश्वास, सामाजिक रूढ़ियों और विडम्बनाओं का अद्भुत चित्रण है। मंजूर एहतेशाम ने ‘सूखा बरगद’ में मुस्लिम-समाज के विकास से जुड़े जिन संवेदनशील गतिरोधों को स्पर्श किया है उनकी चर्चा से भी आमतौर पर लोग घबराते हैं। धर्म, जातीयता, क्षेत्रीयता, भाषा और साम्प्रदायिकता के जो सवाल, आज़ादी के बाद इस मुल्क में पैदा हुए हैं, उनकी असहनीय आँच इस समूची कथाकृति में महसूस की जा सकती है। इस उपन्यास में ये सवाल ‘सूखा बरगद’ की झूलती हुई जड़ों की मानिन्द फैले हुए हैं जिसके नीचे न तो कोई कौम पनप सकता है और न खुशहाली की कल्पना हो सकती है। इन सवालों का जवाब समाज के शोषित, पीड़ित, अपमानित और लांक्षित लोग ही हैं जो आज भी अपना वजूद बनाए हुए हैं! यह उपन्यास सामाजिक विकास के अत्यन्त संवेदनशील गतिरोधों को सिर्फ़ छूता ही नहीं, अस्तित्व और उम्मीद के सन्दर्भ में गहरी छानबीन भी करता है।
© 2017 Storyside IN (หนังสือเสียง ): 9789352843503
วันที่วางจำหน่าย
หนังสือเสียง : 17 พฤศจิกายน 2560
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วรรณกรรมคลาสสิค
सूखा बरगद मंजूर एहतेशाम ‘सूखा बरगद’ मंजूर एहतेशाम का ऐसा उपन्यास है जिसने उपन्यास-जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए एक हलचल पैदा की। क्योंकि यह उपन्यास, महज़ उपन्यास ही नहीं, भारतीय मुस्लिम समाज की मुकम्मिल तस्वीर भी है। वर्तमान मुस्लिम समाज के अन्तर्विरोधों की गम्भीर पड़ताल की वजह से ही यह उपन्यास काल-सीमा को लाँघता प्रतीत हुआ और उपन्यासकार मंजूर एहतेशाम का नाम राही मासूम राजा और शानी सरीखे चर्चित लेखकों की श्रेणी में शूमार किया जाने लगा। ‘सूखा बरगद’ में मुस्लिम समाज में व्याप्त अशिक्षा, अन्धविश्वास, सामाजिक रूढ़ियों और विडम्बनाओं का अद्भुत चित्रण है। मंजूर एहतेशाम ने ‘सूखा बरगद’ में मुस्लिम-समाज के विकास से जुड़े जिन संवेदनशील गतिरोधों को स्पर्श किया है उनकी चर्चा से भी आमतौर पर लोग घबराते हैं। धर्म, जातीयता, क्षेत्रीयता, भाषा और साम्प्रदायिकता के जो सवाल, आज़ादी के बाद इस मुल्क में पैदा हुए हैं, उनकी असहनीय आँच इस समूची कथाकृति में महसूस की जा सकती है। इस उपन्यास में ये सवाल ‘सूखा बरगद’ की झूलती हुई जड़ों की मानिन्द फैले हुए हैं जिसके नीचे न तो कोई कौम पनप सकता है और न खुशहाली की कल्पना हो सकती है। इन सवालों का जवाब समाज के शोषित, पीड़ित, अपमानित और लांक्षित लोग ही हैं जो आज भी अपना वजूद बनाए हुए हैं! यह उपन्यास सामाजिक विकास के अत्यन्त संवेदनशील गतिरोधों को सिर्फ़ छूता ही नहीं, अस्तित्व और उम्मीद के सन्दर्भ में गहरी छानबीन भी करता है।
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