कावड़ यात्रा वेद पुराणों में शिवजी का अन्य नाम आशुतोष बताया गया है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार महादेव को यह नाम इसीलिए मिला क्योंकि वह भक्तों और साधकों की निष्काम तथा कठोर साधना से तुरन्त प्रसन्न हो जाया करते हैं। इसी कारण के चलते प्राचीन काल से देवता, गन्धर्व, असुर तथा साधारण मानव आदि भोले की आराधना कर अनेक शक्तिशाली एवं असाधारण वर प्राप्त किया करते थे। आजके समय में शैव उपासना की इस अनन्य परम्परा का एक रूप प्रसिद्ध "कावड़ यात्रा" के रूप में देखने को मिलता है। जहाँ लाखों श्रद्धालु कठोर नियमों का पालन करते हुए सैकड़ों किलोमीटर नंगे पैर चलकर भगवान भोलेनाथ को जल अर्पित करते हैं। हिन्दू धर्म में श्रावण के महीने को अत्यन्त पवित्र माना जाता है। इसी श्रावण में कावड़ यात्रा निकलती है। मुख्यतः उत्तर और पूर्वी भारत में कावड़ यात्रा विशेष रूप से मनाई जाती है, जिसमें असंख्य शिवभक्त गेरुआ वस्त्र का परिधान किए हाथों में एक डंडी पर दो घड़े लटकाए हुए शिवजी का जलाभिषेक करने निकलते हैं। इन दो घड़ों में नदी का पवित्र जल होता है जिसे वे "कावड़" नामक उस डंडी पर लटकाए अपने कंधों पर उठाए शिवालय पहुँचते हैं। इन भक्तों को कावड़िया कहा जाता है जो कि सकड़ों किलोमीटर का मार्ग पैदल की पार करते हुए भोले की शरण में पहुँचते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कावड़ यात्रा की शुरुआत शिवजी को शीतल जल से अभिषेक करने की प्रथा से शुरू हुई है। विष्णु पुराण एवं भागवत पुराण के अनुसार समुद्र मंथन के उपरान्त जब "हलाहल" विष की उत्पति हुई तो समग्र सृष्टि इसके प्रभाव में आकर नष्ट होने वाली थी। सृष्टि को इस विष के प्रलय से बचाने हेतु शिवजी ने हलाहल का पान कर लिया जिसके दुष्प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया। इसी वजह से शिवजी का एक और नाम नीलकंठ भी पड़ा। इसके पश्चात् शिवजी को विष की ज्वाला से शान्ति प्रदान करने हेतु माता पार्वती एवं अन्य देवताओं ने शीतल जल से उनका अभिषेक किया। तभी से भोलेनाथ के जलाभिषेक की परम्परा प्रचलन में आई। यूं तो पूरे वर्ष भक्त शिवालयों में जाकर शिवजी का अभिषेक करते हैं, लेकिन मान्यताओं के अनुसार कावड़ यात्रा के समय ऐसा करने से श्रद्धालुओं को विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
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