श्रीगणेश पुराण के अनुसार गणेश जी के जन्म और उनके हाथी के सर की कथा कुछ इस प्रकार है।
देवी पार्वती की दो सखियाँ थीं – जया और विजया। दोनों अत्यंत सदाचारिणी और विवेकमयी थीं, और देवी पार्वती उनका बहुत आदर करती थीं। एक दिन उन सखियों ने पार्वती जी से कहा, “सखी! शिवजी के इतने सारे गण हैं और आपका एक भी नहीं। आपका कम से कम एक गण तो होना चाहिये।“
उमा ने आश्चर्यपूर्वक कहा, “क्या कह रही हो सखियों? हमारे पास करोड़ों गण हैं, जो सदा हमारी आज्ञा का पालन करने के लिये तत्पर रहते हैं। फिर किसी अन्य गण की क्या आवश्यकता है?”
सखियों ने कहा, “सभी गण महादेव के हैं। उनकी ही आज्ञा उनके लिए प्रमुख है। नंदी, भृंगी आदि सभी गण आपकी आज्ञा मानते तो हैं पर आशुतोष भगवान की आज्ञा ही उनके लिये सर्वोपरि है। यदि आप कोई आदेश दें और शिवजी उसकी उपेक्षा करें तो कोई भी गण आपका आदेश नहीं मानेगा। आप पूछेंगी को अवश्य ही कोई बहाना बना दिया जाएगा।“
देवी पार्वती ने अपनी सखियों भी बात सुनी पर समय के साथ भूल गयीं।
एक दिन पार्वती जी स्नान करने जा रही थीं, और उन्होंने नंदी को आदेश दिया कि वो द्वार पर खड़े होकर किसी को भी अंदर न आने दें।
नंदी द्वार पर खड़े हो गए। उसी समय शंकर जी वहाँ आ पधारे और अंदर जाने लगे। नदीश्वर ने उनको रोकते हुए कहा, “स्वामी! माता अभी स्नान कर रही हैं, इसलिए आप यहीं ठहरने की कृपा करें।“
शिवजी नंदी की बात को अनसुना करके अंदर चले गए।
भगवान आशुतोष को इस प्रकार अंदर आया देखकर देवी पार्वती को अपनी सखियों की बात याद आ गई। उनको समझ में आ गया की सभी गण शिवजी के सेवक हैं और उनकी आज्ञा ही उनके लिए सर्वोपरि है। नंदी ने आज मेरी इच्छा की उपेक्षा की है। यदि मेरा कोई गण होता तो उसके लिए मेरी इच्छा सर्वोपरि होती।
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