द्वापर युग का अंतिम समय आ चुका था, महाभारत युद्ध को हुए छत्तीस वर्ष बीत चुके थे। गांधारी के श्राप के अनुसार सात्यकि और कृतवर्मा की लड़ाई से शुरू हुआ कलह अब पुरे यादव वंश को समाप्त कर चुका था। शेष बचे बलराम के स्वधाम लौटने के बाद अब पूरी तरह से अकेले हो चुके थे भगवान श्रीकृष्ण। अब अपना बाकी का जीवन वह वन में ही बिताने लगे. एक दिन वनवासी जारा शिकार की तलाश में जंगल में घूम रहा था। जारा को झाड़ियों के बीच खड़े एक हिरण का आभास हुआ, उसने अपने धनुश को तैयार किया और निशाना साध दिया। जारा का निशाना अभेद्य था, गहरे लाल रंग के रक्त के प्रवाह के साथ जारा को अपनी विजय का एहसास हो चुका था। तभी हृदय को चीरने वाली एक दर्द भरी चीख ने उसे एक समय के लिए झकझोर कर रख दिया, उसका तीर गलती से मृग को नहीं बल्कि एक ,मनुष्य को लग चुका था।
जारा ने अपने सामने जो दृश्य देखा उसके बाद उसे खुद पर बहुत क्रोध आया और वह पश्चाताप की आग में जलने लगा। क्योंकि जारा का बाण वहीं झाड़ियों के बीच विश्राम कर रहे एक मनुष्य के पैर में लग चुका था जिसे जारा ने गलती से हिरण समझ लिया था। वह मनुष्य कोई और नहीं, द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण थे। बहरहाल जारा ने भगवान से अपने इस किये गए पाप के दंड स्वरुप स्वयं के लिए भी मृत्यु मांग ली।
जारा को इस तरह रोते बिलखते अपने भाग्य को कोसते हुए देख भगवान श्रीकृष्ण थोड़ा मुस्कुराये। जिन्होंने अधर्म को समाप्त करने हेतु महाभारत की रचना की, उन्हें भला स्वयं की मृत्यु की पूर्व निर्धारित विधि कैसे न पता रहती। जारा की व्याकुलता को देख कर श्रीकृष्ण ने उसे यह कहकर सांत्वना दी कि यह सब पहले से तय था, जारा द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण की हत्या का कारण नहीं बल्कि उनके पार्थिव शरीर से मुक्ति का कारक बना है।
भगवान ने जारा की उत्सुकता को देख उसे अपने और उसके पूर्व जन्म की कहानी सुनाई, कि कैसे उसी के ही हाथों उनका, मृत्यु को प्राप्त करना विधि निर्देशित था। पूर्व जन्म यानी त्रेता युग में भगवान राम के अवतार ने महापराक्रमी वानर राज बाली का वध किया था, यद्यपि यह धर्म की स्थापना हेतु ज़रूरी था, लेकिन युद्ध के नियमों के विरुद्ध था। भगवान राम ने बाली की हत्या करने हेतु छल का सहारा लिया था, और बाली पर तीर उन्होंने एक झाड़ी के पीछे रहकर, छुपकर चलाया था।
जारा अभी तक कुछ समझने की स्थिति तक नहीं पहुंच पाया था, वह समझ नहीं पा रहा था कि उसको यह सब कहानी क्यों सुनाई जा रही है, उसका इससे क्या लेना देना है। खैर! उसका यह संदेह ज्यादा देर तक नहीं टिक पाया जब श्रीकृष्ण ने उसे बताया कि वह त्रेता युग में वानर राज बाली था। देवराज इंद्र का पुत्र वही वानर महावीर जिसके पराक्रम से असुर तो असुर, देवता भी कांपते थे।
जारा को यह सब किसी अविश्वसनीय सपने जैसा लग रहा था, लेकिन वह भी मानने को विवश था। भगवान श्रीकृष्ण के ऊपर बाण चलाकर उसने अपने प्रतिशोध के ऋण को ही चुकाया था। श्रीराम से सच्ची भक्ति, प्रेम और समर्पण ही वही कारक थे जिनके चलते स्वयं भगवान को भी उसे यह अवसर देना ही पड़ा। अपनी हत्या का प्रतिशोध जारा रूपी बाली ले चुका था, बिना जाने, बिना समझे, बिना उसकी इच्छा के।
बेहरहाल, अर्जुन के साथ मिलके जारा ने भगवान श्रीकृष्ण का अंतिम संस्कार किया और उनके कहे अनुसार द्वारका नगरी का सम्पूर्ण विनाश भी अपनी आँखों से देखा। श्रीकृष्ण का पार्थिव शरीर अग्नि में लीन होने के बाद भी उनका हृदय जैसे का वैसा था। आग उसे जला नहीं पाई थी, और तो और वह तब भी धड़क रहा था। अर्जुन और जारा ने श्रीकृष्ण के शेष बचे उस अंश को समुद्र में विसर्जित कर दिया। उसी पल से द्वापर युग की समाप्ति और कलयुग का आरंभ हुआ। एक और मान्यता के अनुसार जारा, वानर राज बाली नहीं बल्कि उनके पुत्र अंगद का पुनर्जन्म था। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
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