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2 Ratings

5

Duration
23H 7min
Language
Hindi
Format
Category

Fiction

बीसवीं सदी के अंतिम प्रहर में एक मजदूर की बेटी के मोहभंग, पलायन और वापसी के माध्यम उपभोक्तावादी वर्तमान समाज को कई स्तरों पर अनुसंधानित करता, निर्ममता से उधेड़ता, तहें खोलता, चित्रा मुदगल का सुविचारित उपन्यास आवां’ अपनी तरल, गहरी संवेदनात्मक पकड़ और भेदी पड़ताल के आत्मलोचन के कटघरे में ले, जिस विवेक की मांग करता है-वह चुनौती झेलता क्या आज की अनिवार्यता नहीं।

संगठन अजेय शक्ति है। संगठन हस्तक्षेप है। संगठन प्रतिवाद है। संगठन परिवर्तन है। क्रांति है। किन्तु यदि वहीं संगठन शक्ति सत्ताकांक्षियों की लोलुपताओं के समीकरणों को कठपुतली बन जाएं तो दोष उस शक्ति की अन्धनिष्ठा का है या सवारी कर रहे उन दुरुपयोगी हाथों का जो संगठन शक्ति को सपनों के बाजार में बरगलाए-भरमाए अपने वोटों की रोटी सेंक रहे। ये खतरनाक कीट बालियों को नहीं कुतर रहे। फसल अंकुआने से पूर्व जमीन में चंपे बीजों को ही खोखला किए दे रहे हैं। पसीने की बूंदों में अपना खून उड़ेल रहे भोले-भाले श्रमिकों कोहितैषी की आड़ में छिपे इन छद्म कीटों से चेतने-चेताने और सर्वप्रथम उन्हीं से संघर्ष करते, की जरूरत नहीं क्या हुआ उन मोर्चों का जिनकी अनवरत मुठभेड़ों की लाल तारीखों में अभावग्रस्त दलित-शोषित श्रमिकों की उपासी आंतों की चीखती मरोड़ों की पीड़ा खदक रही थी। हाशिए पर किए जा सकते हैं वे प्रश्न जिन्होंने कभी परचम लहराया था कि वह समाज की कुरूपतम विसंगति आर्थिक वैषम्य को खदेड़, समता के नये प्रतिमान कायम करेंगे। प्रतिवाद में तनी आकाश भेदती भट्ठियों से वर्गहीन समाज रचेंगे-गढ़ेंगे जहां मनुष्य, मनुष्य होगा। पूंजीपति या निर्धन नहीं। पकाएंगे अपने समय के आवां को अपने हाड़मांस के अभीष्ट इंधन से ताकि आवां नष्ट न होने पाए। विरासत भेड़िए की शक्ल क्यों पहन बैठी ट्रेड यूनियन जो कभी व्यवस्था से लड़ने के लिए बनी थी। आजादी के पचास वर्षोंपरान्त आज क्या वर्तमान विकृत-भ्रष्ट स्वरूप धारण करके स्वयं एक समान्तर व्यवस्था नहीं बन गयी।

© 2024 RadioTalkies (Audiobook): 9798882301278

Release date

Audiobook: 25 July 2024